प्रस्तुत कहानी हमें नि: स्वार्थ भाव से कार्य करने की प्रेरणा देती है। साथ ही यह कहानी हमें प्राणी मात्र को भी उदारता से देखने का संदेश देती है। इस कहानी का सेठ बिना किसी फायदे और नुकसान के एक भूखे कुत्ते को अपना सारा भोजन खिला देता है। सेठ को इस नि: स्वार्थ कृत्य के लिए ईश्वर उसका फल देते हैं।
कहानी का सार इस प्रकार है-
सेठजी बड़े विन्रम और उदार थे। सेठ जी इतने बड़े धर्मपरायण थे कि कोई साधू-संत उनके द्वार से निराश न लौटता, भरपेट भोजन पाता। उनके भंडार का द्वार हमेशा सबके लिए खुला रहता। उन्होंने बहुत से यज्ञ किए और दान में न जाने कितना धन दिन दुखियों में बाँट दिया था। सेठ जी के उदार होने के कारण कोई भी उनके द्वार से खाली नहीं जाता था परंतु अकस्मात् सेठ जी के दिन फिरे और सेठ जी को गरीबी का मुँह देखना पड़ा। ऐसे समय में संगी-साथियों ने भी मुँह फेर दिया और यही सेठ जी के दुःख का कारण था।
उन दिनों एक प्रथा प्रचलित थी। यज्ञों के फल का क्रय-विक्रय हुआ करता था। छोटा-बड़ा जैसा यज्ञ होता, उनके अनुसार मूल्य मिल जाता। जब बहुत तंगी हुई तो एक दिन सेठानी ने सेठ को सलाह दी कि क्यों न वे अपना एक यज्ञ बेच डाले। इस प्रकार बहुत अधिक गरीबी आ जाने के कारण सेठानी ने सेठ को अपना यज्ञ बेचने की सलाह दी। उस समय यज्ञ का क्रय-विक्रय का चलन होने के कारण सेठ ने अपना बुरा समय दूर करने के लिए अपना एक यज्ञ बेचने का निर्णय लिया।
सेठ के यहाँ से दस-बारह कोस दूरी पर कुंदनपुर नाम का एक नगर था जहाँ पर एक अमीर धन्ना सेठ रहते थे उन्हीं के पास सेठ में अपना यज्ञ बेचने का निश्चय किया। सेठ जी बड़े तड़के उठे और कुंदनपुर की ओर चल दिए। गर्मी के दिन थे सेठ जी सोचा कि सूरज निकलने से पूर्व जितना ज्यादा रास्ता पार कर लेगें उतना ही अच्छा होगा परंतु आधा रास्ता पार करते ही थकान ने उन्हें आ घेरा। सामने वृक्षों का कुंज और कुआँ देखा तो सेठ जी ने थोड़ा देर रुककर विश्राम और भोजन करने का निश्चय किया। सामने वृक्षों का कुंज और कुआँ देखा तो सेठ जी ने थोड़ा देर रुककर विश्राम और भोजन करने का निश्चय किया। पोटली से लोटा-डोर निकालकर पानी खींचा और हाथ-पाँव धोए। उसके बाद एक लोटा पानी ले पेड़ के नीचे आ बैठे और खाने के लिए रोटी निकालकर तोड़ने ही वाले थे कि क्या देखते हैं एक कुत्ता हाथ भर की दूरी पर पड़ा छटपटा रहा था। भूख के कारण वह इतना दुर्बल हो गया कि अपनी गर्दन भी नहीं उठा पा रहा था। यह देख सेठ का दिल भर आया और उन्होंने अपना सारा भोजन धीरे-धीरे कुत्ते को खिला दिया।
दिया जले सेठ धन्ना सेठ के यहाँ पहुंचकर अपने यज्ञ बेचने के बारे में बताते हैं। इतने में धन्ना सेठ की पत्नी आती है। धन्ना सेठ की पत्नी बड़ी विदुषी स्त्री थीं। उनके बारे में यह प्रचलित था कि उन्हें कोई दैवीय शक्ति प्राप्त है जिसके कारण वे तीनों लोकों की बात जान लेती हैं।
धन्ना सेठ की पत्नी सेठ को अपना महायज्ञ बेचने की बात करती है। धन्ना सेठ की पत्नी ने जब सेठ जी से अपना महायज्ञ बेचने की बात की तो उन्हें आश्चर्य हुआ क्योंकि महायज्ञ की बात तो छोड़िए सेठ ने बरसों से कोई सामान्य यज्ञ भी नहीं किया था।
तब धन्ना सेठ की पत्नी उन्हें रस्स्ते में भूखे कुत्ते को अपना भोजन खिलाने वाले महायज्ञ की बात बताती है। क्योंकि उसके अनुसार स्वयं भूखे रहकर चार रोटियाँ किसी भूखे कुत्ते को खिलाना ही महायज्ञ है। इस तरह यज्ञ कमाने की इच्छा से धन-दौलत लुटाकर किया गया यज्ञ ,सच्चा यज्ञ नहीं है, निस्वार्थ भाव से किया गया कर्म ही सच्चा यज्ञ महायज्ञ है।
परन्तु सेठ के अनुसार उनका भूखे कुत्ते को रोटी खिलाना मानवोचित कर्तव्य था। उसमें यज्ञ जैसी कोई बात नहीं थी। सेठ को अपने इस मानवोचित कर्त्तव्य का मूल्य लेना उचित नहीं लगा इसलिए सेठ ने अपना यज्ञ बेचना स्वीकार नहीं किया और वापस अपने घर की ओर लौट चलते हैं।
सेठानी के पति जब कुंदनपुर गाँव से धन्ना सेठ के यहाँ से खाली हाथ घर लौटे तो पहले तो वे काँप उठी पर जब उसे सारी घटना की जानकारी मिली तो उनकी वेदना जाती रही। उनका ह्रदय यह देखकर उल्लसित हो गया कि विपत्ति में भी उनके पति ने अपना धर्म नहीं छोड़ा और इसी बात के लिए सेठानी ने अपने पति की रज मस्तक से लगाई।
रात के समय सेठानी उठकर दालान में दिया जलाने आईं तो रास्ते में किसी चीज से टकराकर गिरते-गिरते बची। सँभलकर आले तक पहुँची और दिया जलाकर नीचे की ओर निगाह डाली तो देखा कि दहलीज के सहारे पत्थर ऊँचा हो गया है जिसके बीचों बीच लोहें का कुंदा लगा है। शाम तक तो वहाँ वह पत्थर बिल्कुल भी उठा नहीं था अब यह अकस्मात कैसे उठ गया?
सेठानी ने जब सेठ को बुलाकर दालान में लगे लोहे कुंदे के बारे में बताया तो सेठ भी आश्चर्य में पड़ गए। सेठ ने कुंदे को पकड़कर खींचा तो पत्थर उठ गया और अंदर जाने के लिए सीढ़ियाँ निकल आईं। सेठ और सेठानी सीढ़ियाँ उतरने लगे कुछ सीढ़ियाँ उतरते ही इतना प्रकाश सामने आया कि उनकी आँखें चौंधियाने लगी। सेठ ने देखा वह एक विशाल तहखाना है और जवाहरातों से जगमगा रहा है। तभी उन्हें एक अदृश्य स्वर सुनाई देता है कि उनके द्वारा किये गए कार्य का यह पुरस्कार है। सेठ और सेठानी इस दिव्य वाणी को सुनकर धन्य हो जाते हैं और वही धरती पर माथा टेककर भगवान के चरणों में प्रणाम करते हैं।